इन्हें कोई और नहीं-उन्हें कोई ठोर नहीं, -हमें मौका परस्त न कहो जनाव-बना गया है अब ये दुनियादारी का दस्तूर-उत्तर प्रदेश स्थानीय निकाय के चुनाव में यदि किसी की मौज है तो वो हैं मुदअत से राजनीतिक अज्ञातवास काट रहे एक्सपायरी डटेड नेताओं की. मेरठ का स्थानीय निकाय चुनाव भी इससे अछूता नहीं रहा है. यहां भी अज्ञातवास काट रहे एक्सपायर डेटिड नेताओं के भले ही कुछ वक्त के लिए ही सही अच्छे दिन आ गए लगते हैं, क्योंकि एक पुरानी कहावत यह भी है कि दरिया का वजद तभी तक है जब तक वह दरिया है, समुंद्र में मिलकर दरिया फिर दरिया नहीं रहता. मेरठ नगर निगम के चुनाव की बात करें तो ऐसे तमाम नेता हैं जो जिनकी दरिया की पहचान भी समुद्र में मिलकर खो गई है. इनमें से ज्यादातर वो हैं जो पॉलटिकल अज्ञातवास काट रहे थे. ऐसे नेताओं को उनकी पुश्तैनी या कहें जहां थे वहां कोई अरसे से पूछ नहीं रहता था, कोई सुध लेने वाला नहीं था, ऐसे में किसी बड़े दल का ठप्पा लगने के बाद मीडिया की सुर्खियों में आना कोई घाटे का सौदा नहीं है. इन दिनों यही हो रहा है. यह किसी एक दल विशेष में नहीं है, तमाम दल ऐसे हैं जो पालटिकल अज्ञातवास काट रहने भूले-बिसरे और ठुकराए हुए नेताओं कार्यकर्ताओं की तलाश में लगे हैं, उनको अपने साथ कतार में खड़ा कर चुनावी मौसम में सिर्फ और सिर्फ उनकी जाति और वर्ग के वोट लेने के अलावा कोई दूसरा मकसद नहीं. कुछ हासिल करने के लिए पहले से खचाखच भीड़ सरीखे राजनीतिक दलों में जो पहले शामिल हो चुके हैं उनका यदि हश्र देखकर चिंतन मनन कर लिया होता तो शायद दरिया फिर समुन्द्र में मिलने की गलती ना करता, वो अपना दरिया का वजूद ही कायम रखता, लेकिन ये चुनावी मौसम है जनाव इस मौसम में ख्वाब देखने और दिखाने का पुराना दस्तूर है. ये ख्वाब पहले नेता केवल जनता को ही दिखाते थे, दो कदम और आगे बढ़ते हुए नेता अब नेताओं को ख्वाब दिखाने लगे हैं. जब से मेरठ नगर निगम का चुनाव शुरू हुआ है तब से भूले बिसरे-बिसराए गए अपनों के ठुकराए गए राजनीतिक अज्ञातवास काटने वालों को गले लगाने का मौसम जारी है. यह सिलसिला मतदान की पूर्व संध्या तक भी जारी रह सकता है. उसके बाद भूल गया सब कुछ याद नहीं अब कुछ..