स्त्री पुरुष एक दूसरे के पूरक

स्त्री पुरुष एक दूसरे के पूरक
Share

ईश्वर द्वारा रचित सुंदर सृष्टि में प्रत्येक जीवधारी अपने सुंदरता लिए अपने-अपने गुणधर्म अपनी प्रकृति व अपने स्वभाव अनुसार जीवन वय करता है। जैसे सूरज का धर्म तपना, चंद्रमा का शीतलता, हवा व पानी का धर्म बहना है उसी प्रकार पुरुष का धर्म पुरुषत्व तथा स्त्री का धर्म स्त्रीत्व है। जगत में पुरुष की प्रकृति तेज, साहस, शौर्य, पराक्रम, बलिष्ठता, निडरता, स्थिरता इत्यादि से सुशोभित है तो वहीं स्त्री की प्रकृति प्रेम, करुणा, दया, सहृदयता, सुकोमलता, सहानुभूति, सहनशीलता, चंचलता इत्यादि गुण विद्यमान है। स्त्री के इन्हीं गुणों को स्त्रैण की संज्ञा दी गई है। जहां पुरुष को अपनी शौष्ठवता, निडरता हेतु विध्वंसक की संज्ञा दी गई वहीं स्त्री को सुकोमल सहज गुणों हेतु सृजनता से नवाजा गया है। स्त्री पुरुष दोनों में विपरीत गुणधर्म होने के बाद भी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे के साथी व सहयोगी हैं। इसी कारण वह इस सुंदर जगत में अस्तित्व बनाए हुए हैं। ना स्त्री पुरुष से कमजोर है और ना ही पुरुष स्त्री से बलवान। पुरुष का थोड़ा स्त्री होना और स्त्री का थोड़ा पुरुष होना ही इस प्रकृति को साधे रखना है। पुरुष का स्त्री को अपने से निम्नस्थ रखना/समझना प्रकृति का अपमान है। इसमें स्वयं पुरुष की हानि है। उसकी आने वाली पीढ़ियां उसी स्त्री की कोख से उपजेंगी और कमजोरी या निम्नस्थ स्त्री उत्तम, निडर, साहसी संताने पैदा नहीं कर सकती। यह पुरुष के विवेक पर निर्भर है कि वह स्त्री की सुकोमलता को उसकी कमजोरी ना समझे, उसकी करूणा व सहानुभूति को उसकी मजबूरी ना समझे। सृष्टि की आरंभिक अवस्था में स्त्रियों ने स्वयं की अस्तित्व के लिए प्रकृति के अवरोधों का स्वयं सामना किया। अपनी संतानों का स्वयं पालन किया किंतु शनैःशनै समाज की विकसित अवस्थाओं में पुरुष ने अपनी नैसर्गिक शक्ति से स्त्रियों की क्षमता को प्रभावित किया। उनकी सीमाएं तय कर उन्हें एक सांचे में ढाल दिया

वर्तमान में आधुनिक स्त्रियां अपनी स्थिति, परिस्थिति व प्रकृति गुणधर्म को लेकर किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। वह पुरुषों की बराबरी व उसके विरोध में खड़ी हुई सी प्रतीत होती हैं। पुरुषों जैसा होने में या पुरुषों के लिए विरोधी प्रवृत्ति उनके व्यक्तित्व में कोई निखार नहीं ला रही, समाज में कोई सुंदर सृजनता नहीं उत्पन्न हो रही। मेरा मानना है कि स्त्री के व्यक्तित्व में कोमलता और सहानुभूति के साथ साहस तथा विवेक का एक ऐसा सामंजस्य हो जिससे हृदय के सहज स्नेह की अजस्र वर्षा करते हुए भी वह किसी अन्याय को प्रश्रय न देकर उसके प्रतिकार में तत्पर रह सके। सूर्य और चंद्रमा की कोई तुलना नहीं। दोनों अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है। पुरूष समाज का न्याय है, स्त्री दया, पुरुष प्रतिशोध में क्रोध है, स्त्री क्षमा; पुरुष शुष्क कर्तव्य है, स्त्री सरल सहानुभूति; और पुरुष बल है, स्त्री हृदय की प्रेरणा। स्त्रीदृपुरुष के प्राकृतिक मानसिक वैपरीत्य द्वारा ही हमारा समाज सामंजस्य पूर्ण और एकमय हो सकता है उनके बिंब प्रतिबिंब भाव से नहीं। (महादेवी वर्मा)

वर्तमान स्थिति अत्यंत भयावय है। सभ्यता के शिखर पर पहुंचकर हम जंगली/ बर्बरों जैसी घटनाओं को देख रहे हैं। आये दिन समाचार पत्र पत्रिकाओं में महिलाओं को लेकर विभीत्स घटनाएं मानव बौद्धिकता व सभ्यता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर रही हैं। अपराध के आंकड़े दिनों दिन बढ़ते ही जा रहे है। समाचार पत्र में एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा गया है कि महिला अपराधों में वृद्धि का एक प्रमुख कारण पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। महिला के विरुद्ध अपराध उसकी नैसर्गिक क्षमता के कारण नहीं बल्कि सामाजिक सांस्कृतिक कारणों से होते हैं। किसी स्त्री का बलात्कार, उस पर भी सामूहिक बलात्कार एक सभ्य समाज की पराजय है। उन सभ्यताओं के मुंह पर एक कालिख है जो अपने को सभ्य कहते हैं, उस बौद्धिकता पर कलंक है जो एक रुग्ण और अमानवीय समाज का निर्माण कर रही है, उसे प्राचीन वेद वाक्य, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ का अपमान है। स्त्री पुरुष की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं, अपनी क्षमताएं व विलक्ष्णताएं हैं। आशा है कि एक सुंदर सहज, सरल समाज के लिए, आने वाली पीढियां के लिए, अपने भविष्य के लिए स्त्री पुरुष दोनों ही इन विशेषताओं को सहेजते हुए एक बेहतर समाज का निर्माण करने में अपनी-अपनी भूमिका का निर्वहन करेंगे।

पिंकी यादव
असिस्टेंट प्रोफेसर, समाजशास्त्र विभाग
बीडीएम गर्ल्स डिग्री कॉलिज,
शिकोहाबाद, जनपद फिरोजाबाद।

@Back Home


Share

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *