देते हैं भगवान को धोखा..इंसान-1

देते हैं भगवान को धोखा-कलशों का व्यापार
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देते हैं भगवान को धोखा..इंसान-1, देते हैं भगवान को धोखा-इंसान को क्या छोड़ेगे-गाना है लेकिन प्रासंगिक है। सवाल पूछा जा रहा है कि वर्षायोग क्यों बन गया धर्म साधना से मानसून कलश सेल आफर! क्रेडिट पर चलता सैकड़ों हजारों कलशों का व्यापार!* साध्वी दिव्यशक्ति, चारित्र चन्द्रिका गणिनी प्रमुख ज्ञानमती को आ. श्री शांतिसागर जी, आ. श्री वीर सागर जी, आ. शिवसागर जी, आ. धर्मसागर जी आदि सभी के संघों में रहने का जिन्हें अनुभव है। इस बार वे आर्यिका दीक्षा के बाद 67वां वर्षायोग स्थापना करेंगी। उन्हें कभी वर्षायोग स्थापना पर कलश स्थापना करते हुए नहीं देखा। उन्होंने कुछ समय पहले सांध्य महालक्ष्मी से विशेष चर्चा में बताया था कि उन्होंने महान संतों को देखा है, उन्होंने कभी कलश स्थापना नहीं की, लेकिन यह परम्परा कहां से और कब प्रचलित हो गई, पता नहीं। आगम में इसका कहीं वर्णन नहीं मिलता है। तो फिर यह परम्परा आगम या शास्त्रों के बिना कब शुरू हो गई, 1930-40-50 की जैन पत्र-पत्रिकाओं के कुछ अंक भी देखें, पर किसी में वर्षायोग पर कलश स्थापना का उल्लेख भी नहीं मिला। तब एक बार ध्यान तीर्थ वसंत कुंज में सांध्य महालक्ष्मी से धर्म चर्चा के दौरान आचार्य श्री आनंद सागरजी मौनप्रिय ने इसका खुलासा किया। उन्होंने कहा कि तब कलश क्या होता था, एक लोटा और उस पर रख दिया नारियल, बस यही था कलश। उन्होंने बताया कि उन्हें आचार्य श्री कुंथु सागर जी ने बताया था कि आचार्य श्री विमल सागर जी ने साधु व श्रावक को मिलाने के लिये कलश स्थापना की शरूआत की थी। बस तब उन्होंने लोटे के ऊपर नारियल रख कलश की वर्षायोग के लिये स्थापना की। बस श्रमण-श्रावक के मिलन के रूप में आचार्य श्री विमल सागर जी ने इसकी शुरुआत की, जिसका बदलता स्वरूप वर्तमान में दिखता है। शास्त्री परिषद के अध्यक्ष डॉ. श्रेयांस कुमार जैन जी ने इसी पर जानकारी दी कि सबसे पहले 1973 में आ. श्री विमल सागरजी ने उ.प्र. में मंगल कलश की स्थापना की थी, जैसे हम लोग पूजा विधान में करते हैं। पर आगम में इसका कोई उल्लेख नहीं है।। (यह लेखक का मत है-हमारा नहीं)

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