हट्टे कट्टे हो फिर भी भीख, हट्टे कट्टे हो यहां खड़े होकर भीख मांग रहे हो, कुछ करते क्यों नहीं। कान में ये शब्द जलते हुए शीशे के घोल की तरह पड़ते हैं। डिग्री भी है और काबलियत भी, लेकिन नहीं है तो नौकरी नहीं है। यह दर्द केवल वहीं युवा समझ सकते हैं जो पढ़ाई के बाद नौकरी के लिए धक्के खा रहे हैं।सडक पर यदि कोई भीख मांगता युवक मिल जाता है तो हम उसके पीछे की सच्चाई जाने बगैर यह कहने से नहीं चूकते कि कि हटटे-कटटे हो नौकरी आदि क्यों नहीं करते? ऐसे हमें कई युवक सडकों पर रिक्शा चलाते, भीख मांगते या सब्जी बेचते मिला जायेंगे जो अपना घर छोडकर अच्छाई पढाई कर, नौकरी की खोज में आये थे, किन्तु नौकरी तो मिली नहीं, पेट पालने के लिए रिक्शा चला रहे हैं। वह भी अच्छी नौकरी कर अपने परिवार का भरण-पोषण करना चाहते थे, अपने माता-पिता के सपने पूरे करना चाहते थे। अनेक लोगों की उम्मीद उस पर टिकी होती हैं, किन्तु वह क्या करे? पहले शिक्षा के लिए संघर्ष किया, फिर रोजगार के लिए संघर्ष। हमारी सरकारी नीतियां इतनी लचर क्यों हैं? क्या वह नहीं जानते कि युवाओं की योग्यता और अनुभव ही किसी देश को आगे ले जा सकती है? या फिर आरक्षण पर आधारित नीतियां। बेहद शर्म की बात है। यदि उसे चपरासी का ही काम करना था तो अपने माता-पिता की जीवनभर की कमाई खर्च करने की क्या आवश्यकता थी? किन्तु वह युवा आशाओं से भरा था, उसे विश्वास था कि उसे अच्छा रोजगार उसके योग्यता के आधार पर अवश्य मिलेगा, किन्तु जब हकीकत से सामना होता है, तो उसके युवा चाहे वह लडका हो या लडकी, सपने टूट जाते हैं तो उनमें एक प्रकार रोस भर जाता है। वह विद्रोह पर उतर आते हैं। यही वजह है कि युवाओं में देश के प्रति प्रेम और निष्ठा में काफी कमी आई हैैै।वह देश की नीतियों से निराश और हताश है।