जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे
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जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं, -उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे- क़ल्ब-ए-माहौल में लर्ज़ां शरर-ए-जंग हैं आज हौसले वक़्त के और ज़ीस्त के यक-रंग हैं आज आबगीनों में तपां वलवला-ए-संग हैं आज हुस्न और इश्क़ हम-आवाज़ ओ हम-आहंग हैं आज जिस में जलता हू उसी आग में जलना है तुझे उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे। तेरे क़दमों में है फ़िरदौस-ए-तमद्दुन की बहार तेरी नज़रों पे है तहज़ीब ओ तरक़्क़ी का मदार तेरी आग़ोश है गहवारा-ए-नफ़्स-ओ-किरदार ता-ब-कै गिर्द तेरे वहम ओ तअय्युन का हिसार कौंद कर मज्लिस-ए-ख़ल्वत से निकलना है तुझे उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।ज़िंदगी जेहद में है सब्र के क़ाबू में नहीं नब्ज़-ए-हस्ती का लहू काँपते आंसू में नहीं उड़ने खुलने में है निकहत ख़म-ए-गेसू में नहीं जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं उस की आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।  देश और दुनिया में मुंबई की फिल्मी दुनिया के मशहूर शायर कैफी आजमी के द्वारा  करीब अस्सी साल पहले लिखी गयी यह नज्म महिला आरक्षण विधयेक पर बहस के दौरान अचानक संसद में याद आ गयी। बिल पर बहस के दौरान टीएमसी सांसद महुवा मोइत्रा ने इसका जिक्र किया तो सदन का माहौल एकाएक शायराना हो गया।

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