पुत्र वधु को भी नहीं छोड़ किया बलात्कार

पुत्र वधु को भी नहीं छोड़ किया बलात्कार
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पुत्र वधु को भी नहीं छोड़ किया बलात्कार, हे भगवान, इस रात, दशग्रीव [रावण] ने त्रिविष्टप चोटी पर चढ़ाई की, जब वह अपनी सेना के साथ उस पर्वत पर डेरा डाले हुए था और जब मैं आपसे मिलने आया था, हे शत्रुओं के विजेता! उस राक्षस ने मुझे पकड़ लिया और मुझसे पूछा, “तुम किसके हो?” तब मैंने उसे सब कुछ सच-सच बता दिया, परन्तु जब मैं ने उसे यह कह कर विनती की, “मैं तेरी बहू हूँ, तब उसने कामना के नशे में मेरी एक न सुनी।” मेरी गिड़गिड़ाहट सुनने से इनकार करते हुए, उसने मुझ पर बेरहमी से हमला किया! यह मेरा एकमात्र दोष है, हे दृढ़ प्रतिज्ञा के तुम, इसलिए तुम्हें मुझे क्षमा कर देना चाहिए। हे मित्र, वास्तव में पुरुष और स्त्री के बीच शक्ति की कोई समानता नहीं है!’

– वाल्मीकि , रामायण , उत्तर कांड, अध्याय 26

महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी प्राधा की पुत्री रंभा अदित्य सौन्दर्य की स्वामिनी थी,  उसे देखकर बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के मन डोल जाते थे। एक दिन राक्षसराज रावण कैलाश पर्वत पर भ्रमण के लिए निकला। दिन ढल चुका था। कैलाश का रमणीय वातावरण देखकर रावण ने रात वहीं बिताने का निश्चय किया। एक तरफ मंदाकिनी नदी का मधुर स्वर था तो दूसरी ओर कदंब, चंपा और मंदार के सुगंधित पुष्पों ने वातावरण को और मनमोहक बना दिया था। कैलाश के आंचल में धनेश्वर कुबेर का महल भी स्थित था। रात्रि में कुबेर के महल से अप्सराओं की मीठी ध्वनि सुनाई दे रही थी।  सुगंधित फूलों की महक ने रावण के मन में काम वासना का वेग उत्पन्न कर दिया। । सहसा रावण की दृष्टि एक रूपसी पर पड़ी। ऐसे घोर अंधकार में इतनी सुंदर स्त्री! यह कौन है और रात्रि में कहां जा रही है? वह सोचने लगा। उस कन्या के शरीर पर चंदन का लेप था और बालों में कल्पतरु के फूल गुंथे थे।   उसका यौवन देखकर रावण, संयम खो बैठा। वह आगे बढ़ा और उसने कन्या का हाथ पकड़ लिया। सुंदरी! तुम कौन हो? रात्रि में अकेली कहां जा रही हो?’ रावण ने पूछा। कन्या डर गई। उसने रात के समय इस तरह किसी पुरुष के सहसा मिल जाने की कल्पना नहीं की थी।

‘आप कौन हैं?’ उसने अपना परिचय न देकर रावण से प्रश्न किया और अपना हाथ छुड़ा लिया। ‘मेरा नाम दशग्रीव है। मैं लंका का स्वामी और राक्षसों का राजा रावण हूं।’ लंकापति का नाम सुनकर कन्या भयभीत हो गई। उसने लड़खड़ाती आवाज में पूछा, ‘आप यहां क्या कर रहे हैं?’ ‘तुम्हारी प्रतीक्षा, प्रिये!’ रावण ने निर्लज्जता से उत्तर दिया। ‘मैं भ्रमण के लिए निकला था। लेकिन पर्वतीय पुष्पों की सुगंध और मनोहारी गीत-संगीत ने मेरे भीतर काम का वेग उत्पन्न कर दिया है। संयोग से तुम दिखाई पड़ गईं। तुमने अभी तक अपना परिचय नहीं दिया।’ ‘मेरा नाम रंभा है,’ स्त्री ने कहा। ‘मैं देवलोक की अप्सरा हूं और देवराज इंद्र एवं धनेश्वर कुबेर की सभा में नृत्य करती हूं।’ ‘रंभा! मैंने तुम्हारा बहुत नाम सुना है। यह मेरा सौभाग्य है कि तुमसे भेंट हो गई,’ दशानन ने प्रसन्न होकर कहा। ‘तुम अप्सरा और मैं राक्षसराज! तुम्हारा और मेरा अच्छा मेल बनेगा।’ ‘ऐसा मत कहिए,’ रंभा ने सहमते हुए कहा। ‘आप मुझसे आयु में बड़े और आदरणीय हैं।’

‘मेरी आयु पर मत जाओ, रंभा!’ रावण ने ठहाका लगाया। ‘इस संसार में बहुत कम लोग हैं, जो मेरी तरह काम-शास्त्र में निपुण हैं। तुम मेरे साथ बहुत खुश रहोगी।’ ‘परंतु मैं किसी और से प्रेम करती हूं।’ रंभा ने सत्य कह दिया। ‘हा! हा!’ रावण ने फिर ठहाका लगाया। ‘अप्सराएं कब से प्रेम करने लगीं? प्रेम और निष्ठा सामान्य स्त्रियों का आभूषण है। तुम अप्सरा हो और तुम्हारा काम केवल पुरुषों मनोरंजन करना है।’ ‘यह सही है कि अप्सराएं मनोरंजन का साधन हैं किंतु यह गलत है कि उन्हें किसी से प्रेम नहीं होता। मैं सचमुच किसी से प्रेम करती हूं!’ रंभा ने स्पष्ट कह दिया।

रावण, पूरी तरह काम वासना के प्रभाव में था। ‘क्षमा कीजिए किंतु आप मेरे लिए पिता-तुल्य हैं!’ रावण की अनर्गल बातें सुनकर रंभा ने व्याकुल होकर कहा। ‘आपको मुझसे ऐसी बातें करना शोभा नहीं देता।’ यह कहकर रंभा मुड़कर जाने लगी। ‘ठहरो! पहले मुझे यह बताओ कि तुमने मुझे पिता-तुल्य क्यों कहा?’ ‘क्योंकि मैं आपकी पुत्रवधू के समान हूं।’ रंभा सकुचाते हुए बोली। ‘पुत्रवधू? तुम मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती हो?’ रावण ने आश्चर्य से पूछा। रंभा ने बताया कि वह  यक्षराज कुबेर के पुत्र नलकूबर से प्रेम करती हूं और कुबेर, आपके सौतेले भाई हैं। इस नाते, मैं आपकी पुत्र-वधू के समान हूं। अभी मैं नलकूबर से ही मिलने जा रही हूं,  रावण ने चिढ़कर कहा और फिर उसने बलपूर्वक रंभा का हाथ पकड़ लिया। ‘मैं रावण हूं, जिसके समक्ष देवता भी सिर झुकाए खड़े रहते हैं। फिर भी मैं तुमसे प्रेम की याचना कर रहा हूं और तुम मेरा अपमान करके कुबेर के पुत्र के पास जाना चाहती हो? सुनो रंभा! अप्सरा का न कोई पति होता है और न वह किसी की पत्नी होती है।’

‘!’ रावण ने हाथ खींचकर रंभा को ज़बरदस्ती पर्वत-शिला पर लिटा दिया और फिर रंभा के विरोध करने पर भी बलपूर्वक उसके साथ संभोग किया।  रावण के भीतर काम का आवेग शांत हो गया तो वह रंभा को छोड़कर अपने शिविर में लौट गया। उधर रंभा रोती हुई नलकूबर के पास पहुंची। ‘मैं निर्दोष हूं!’ रंभा ने नलकूबर से कहा। ‘मैंने रावण को यहां तक कहा कि मैं उसकी पुत्रवधू के समान हूं, किंतु उस कामी ने मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा बलात्कार किया।’ रंभा की आपबीती सुनकर नलकूबर की आंखें क्रोध से लाल हो गईं। उसकी भुजाएं फड़कने लगीं। वह जानता था कि उसके लिए रावण से लड़ना या उसे परास्त करना तो संभव नहीं था, लेकिन यक्षराज कुबेर का पुत्र होने के नाते नलकूबर इतना भी विवश नहीं था!

नलकूबर ने हाथ में जल लिया और विधिपूर्वक आचमन करके कहा, ‘रंभा! उस कामी और धूर्त रावण ने जबरदस्ती तुम्हारे साथ बलात्कार किया है। इस अपराध के लिए मैं रावण को शाप देता हूं कि वह फिर कभी किसी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध संभोग नहीं कर सकेगा। यदि उसने ऐसा किया तो उसके सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे!’ कहा जाता है कि इसी डर से रावण राम की पत्नी सीता को छूने का साहस नहीं कर सका, ऐसी ही एक पौराणिक कथा के साथ आपस से शीघ्र रूबरू होंगे तब तक के लिए न्यूज ट्रैकर 24 के लिए शेखर शर्मा को आज्ञा दीजिए नमस्कार. आपसे विनम्र आग्रह है कि हमारा चैनल सब्सक्राइब करें वीडियो लाइक और शेयर करें.

रावण ने रंभा के साथ बलपूर्वक संभोग कर लिया था, किंतु उसे जब नलकूबर के शाप का पता चला तो वह बुरी तरह घबरा गया। उस दिन के बाद से रावण ने पर-स्त्रियों के साथ बलात्कार करना छोड़ दिया। कहते हैं कि रावण ने सीता को भी एक वर्ष तक लंका में बंदी बनाकर रखा। वह सीता को डराता रहा किंतु नलकूबर के शाप के भय से, रावण ने सीता को कभी स्पर्श नहीं किया।वैसे यह पहला या आखिरी अवसर नहीं था जब एक अप्सरा के कारण किसी को शाप मिला था। अप्सराओं का अभूतपूर्व सौंदर्य किसी न किसी के लिए संकट का कारण बनता रहता था। एक बार मायाधर नाम के असुर ने देवताओं को बहुत परेशान कर दिया तो देवताओं ने इंद्र की सहायता से मायाधर को आखिरकार मार डाला।

उसके मरने से देवता इतने प्रसन्न थे कि इस उपलक्ष्य में देवराज इंद्र की सभा में शानदार समारोह आयोजित किया गया, जिसमें नृत्य और संगीत का कार्यक्रम होना स्वाभाविक था। इस कार्यक्रम में रंभा के नृत्य के साथ तुंबरू का संगीत भी होने वाला था। तुंबरू इंद्र के दरबार का एक गंधर्व था, जिसे संगीत की बहुत गहन समझ थी। वह रंभा का गुरु भी था।

उस कार्यक्रम में ऐल वंश के चंद्रवंशी राजा पुरुरवस को भी आमांत्रित किया गया था। कालांतर में, पुरुरवस से ही कौरव और पांडव वंश की उत्पत्ति हुई। पुरुरवस का सब बहुत सम्मान करते थे। संगीत और नृत्य का कार्यक्रम जैसे ही शुरू हुआ, इंद्र-सभा में उपस्थित लोग रंभा और तुंबरू का मधुर ताल-मेल देखकर मंत्रमुग्ध हो गए। तुंबरू ने राग-रागिनियों का माहौल बांधा और रंभा भी उसकी ताल पर नाचने लगी। परंतु फिर अचानक पुरुरवस रुष्ट होकर उठ खड़े हुए। उन्हें देखकर सबको बड़ा अचरज हुआ। रंभा के थिरकते पैर रुक गए और तुंबरू भी सहसा गायन रोक कर शांत हो गया।

‘क्या हुआ महाराज?’ देवराज इंद्र ने असंतुष्ट दिख रहे पुरुरवस से प्रश्न किया। ‘अभी तो कार्यक्रम शेष है, आप उठ क्यों गए?’ ‘देवराज, मैं यहां और नहीं बैठ सकता! क्या आपने मुझे यह त्रुटिपूर्ण नृत्य देखने के लिए आमंत्रित किया था?’ पुरुरवस ने रंभा को घूरते हुए इंद्र से कहा।

‘अशुद्ध!’ तुंबरू बीच में बोल पड़ा, ‘रंभा को नृत्य मैंने सिखाया है। इसके नृत्य में कोई त्रुटि नहीं है।’ ‘तुंबरू, गुरु होकर शिष्य की गलती पर परदा डालना और भी बड़ी भूल होती है!’ पुरुरवस ने तुंबरू पर पलटवार किया। ‘यह अप्सरा निस्संदेह अति सुंदर है, किंतु इसे नृत्य का पूरा ज्ञान नहीं है। मैं स्वयं इससे और इसके गुरु से भी अच्छा नृत्य जानता हूं!’ यह सुनकर एक ओर रंभा के चेहरे का रंग उड़ गया, तो वहीं तुंबरू का चेहरा क्रोध से लाल हो गया।

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