मुंबई-। पड़ौसी मुल्क श्रीलंका जहां भारत शांति सेना भेजा चुका है। जहां सक्रिय लिट्टे आतंकियों ने देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या करा दी थी वहां जेवीपी यानि जनमा विमुक्ति पेरामुना के नेता अनुरा कुमारा की सरकार बनने के निहितार्थ तलाशे जाने चाहिए और तलाशे जा भी रहे हैं। विदेश नीति का सहूर रखने वालों का मनना है कि अनुरा सरकार बनने के बाद चीन का खुश होना समझा जा सकता है। दरअसल दोनों की जड़े व विचारधारा समान हैं। लेकिन अनुरा को लेकर भारत की आशंकाओं का खारिज नहीं किया जा सकता, हालांकि किसी नतीजे पर पहुंचा जल्दबाजी होगी। एक साधारण ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वाले वामपंथी नेता अनुरा कुमारा दिसानायके को अपना नया राष्ट्रपति चुना है। 55 साल के अनुरा , जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) के नेता है, जो मार्क्सवादी-लेनिनवादी जड़ों वाली पार्टी है। वामपंथी जेवीपी श्रीलंका के इतिहास में पहली बार विजेता बनकर उभरी, क्योंकि इसके संकेत पिछले ढाई साल से मिल रहे थे।
अनुरा की ताजपोशी पर चीन इतना खुश क्यों
जेवीपी का गठन 1960 के दशक में श्रीलंका की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएसएल) से अलग हुए एक गुट ने की थी, जिसे चीन समर्थक माना जाता था। माना जा रहा है कि इसी वजह से चीन अनुरा की ताजपोशी को लेकर जश्न के मूड में है। दुनिया में एक दौर वो था जब वैश्विक कम्युनिस्ट आंदोलन दो बड़े गुटों में बंटा हुआ था- एक सोवियत संघ के साथ जुड़ा हुआ था, जो कि प्रकृति में अधिक सुधारवादी और संसदीय समाजवादी था, और दूसरा चीन के साथ, जो क्रांतिकारी संघर्ष और माओवादी सिद्धांतों की वकालत करता था। जेवीपी, श्रीलंका में भारत के प्रभाव को कम करने के लिए हिंसक आंदोलन भी चला चुका है। 1980 के दशक में तमिल अलगाववादियों (विशेषकर लिट्टे से जुड़े लड़ाकों से) को कुचलने में श्रीलंका सरकार की मदद करने के लिए राजीव गांधी की सरकार ने भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) भेजी थी, जिसका जेवीपी ने कड़ा विरोध किया था। हिंसक आंदोलन के दौरान जेवीपी ने भारतीय वस्तुओं और व्यवसायों को निशाना बनाया था। 1989 में एक दवा कंपनी के प्रमुख की हत्या भी कर दी गई थी।जेवीपी का सिंहली राष्ट्रवादी आचरण श्रीलंका के अल्पसंख्यक समुदायों जैसे- तमिलों और मुस्लिमों के खिलाफ भी रहा है। यदि यह पार्टी आज भी अपनी उसी विचारधारा को मजबूती से आगे बढ़ाएगी तो इससे भारत के लिए समस्याएं संभव हैं, लेकिन उससे ज्यादा समस्याएं श्रीलंका के लिए खड़ी होंगी। यहां गौर करने वाली बात यह है कि श्रीलंका में संकट के दौरान चीन श्रीलंका की मदद करता है। हालांकि भारत भी कभी मदद से पीछे नहीं हटा, ये बात अनुरा सरकार कितना याद रखती है यह कहना अभी मुनासिब नहीं। अनुरा इसी साल फरवरी माह में भारत आए थे। विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से मुलाकात हुई भी की थी। अब इनका कितना असर होगा या वो मुलाकात कितनी कारगर आगे साबित होगी इसके लिए अभी कोई टिप्पणी के अच्छा है कि इंतजार किया जाए। विदेश नीति के जानकारों काे आशंका है कि अनुरा के भारत के हितों के लिए चुनौती पेश कर सकते हैं, ‘ श्रीलंका के संविधान के 13वें संशोधन के क्रियान्वयन का उन्होंने समर्थन नहीं किया है, जो देश के तमिल अल्पसंख्यकों को शक्तियां प्रदान करता है और यह भारत सरकार की लंबे समय से मांग रही है. …उन्होंने लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) और श्रीलंकाई सेना के बीच गृहयुद्ध के दौरान किए गए कथित युद्ध अपराधों की किसी भी जांच का भी विरोध किया है। हाल के महीनों में उन्होंने चुनाव जीतने पर श्रीलंका में अडानी की 450 मेगावाट की पवन ऊर्जा परियोजना को रद्द करने की भी बात कही है। उन्होंने इस समझौते को भ्रष्ट तथा देश के हितों के विरुद्ध बताया है। अडानी को लेकर भारत की मोदी सरकार कितनी संदेवनशील है यह बात भी किसी से छिपी नहीं है। हालांकि जानकारों का कहना है कि अडानी के खिलाफ नाराजगी सिर्फ जेवीपी या अनुरा में नहीं है, जिस तरह वह डील हुई थी, उसके खिलाफ एक तरह से पूरे श्रीलंका में नाराजगी है।