कैंसर से मरती हैं हस्तियां.’, लोकरुचि से अपने को दूर करना एक ग़ैर-लोकतांत्रिक और अभिजात कर्म माना जाता है. ऐसा माने जाने का ख़तरा उठाते हुए मैं और मेरा परिवार पिछले लगभग दस वर्षों से टेलीविजन नहीं देखते. एक पुराना, संभवतः बेकार पड़ गया सेट है ज़रूर, पर उसे एक दशक से निष्क्रिय होने के कारण शायद कुछ दिखाने का अपना काम भी याद न रहा होगा. यह किसी साहस का मामला नहीं है, जैसा कि एक अन्य और व्यापक प्रसंग में एक पोलिश कवि ने कहा था, यह रुचि का मामला है. मेरी रुचि झूठों के लगातार बढ़ते अंबार, परस्पर घृणा के विस्तार, चैनलों द्वारा अथक सत्ता के महिमामंडन, झगड़ालू और लांछनभरी भाषा आदि में नहीं है, सो नहीं देखता हूं. अधिकांश चैनल और उनके कई ‘प्राइम टाइम’ कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हैं और ज़ाहिर है कि उन्हें करोड़ों लोग बहुत रुचि लेकर देखते हैं. इन्हीं में से कुछ करोड़ लोक आक्रामक-हिंसक-घृणा फैलाऊ हिंदुत्व को अपना समर्थन भी देते हैं. यह सब मुझे पता है, पर मैं इस लोकरुचि अपने को अलग रखता हूं. मुझे इतना भर लगता है कि मैं हर शाम झूठ और घृणा से बच जाता हूं और मेरी भाषा मलिन होने से. इतना काफ़ी है और अभी लोकतंत्र में इतना कर पाने की स्वतंत्रता बची है. करोड़ों लोगों के मन में लोकनायक वही हैं जिन्हें आजकल मीडिया बहुत उत्साह और अपार साधनों से लोकनायक बना रहा है: कई बार लगता है कि सत्ता स्वतंत्रता में तो कटौती कर सकती है पर सर्जनात्मकता और विचार को रोक या दबा नहीं सकती. कम से कम इतनी सचाई और संभावना अभी बनी हुई है. यह ख़याल भी आता है कि क्या सचाई और संभावना लगातार ख़तरे में नहीं पड़ रही है? सत्ता-भक्ति मीडिया भर में नहीं कलाओं में भी बढ़ रही है. ख़ासकर शास्त्रीय कलाओं में जहां ऐसा होने का एक तर्क यह है कि इन कलाओं को किसी समर्थन चाहिए और वह सत्ता से ही मिल सकता है. (सभार)