डाक्टरों का अकाल-स्वास्थ्य सेवाएं बीमार-झोलाछाप पर दारोमदार,
सिस्टम की खामियों के चलते सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में आने को तैयार नहीं डाक्टर
प्रदेश स्तर पर 450 की भर्ती में से ज्वांइन मात्र 35 ही कर सके ज्वाइन, इस बार 8 सौ की भर्ती ज्वाइनिंग को लेकर असमंजस्य
मेरठ। दावे भले ही कुछ भी किए जाएं, लेकिन हकीकत यह है कि स्वास्थ्य सेवाएं खुद बीमार हैं और लोगों की सेहत की जिम्मेदारी के संबंध में यदि मेरठ की यदि बात की जाए तो करीब 18 हजार झोलाछाप अपने कंधों पर यह जिम्मेदारी उठाए हुए हैं। स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ो की यदि मानें तो मेरठ में करीब 17 हजार 3 सौ झोलाछाप इलाज के नाम पर लोगों की जिदंगी से खिलवाड़ कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि स्वास्थ्य विभाग झोलाछापों से गाफिल है मसलन उनकी जानकारी नहीं है। झोलाछापों की जानकारी भी है और उनके खिलाफ मकहमा चलाने वाले अफसर कई बार एफआईआर भी दर्ज करा चुके हैं। इनमें से कितने जेल भेजे गए हैं, इसका ब्योरा नहीं मिल सका, लेकिन अभी की यदि बात की जाए तो 17 हजार 3 सौ झोलाछाप जिला की स्वास्थ्य सेवाएं संभाल रहे हैं।
स्याह है हकीकत
सूबा चलाने वालों के दावे और स्वास्थ्य सेवाओं की स्याह हकीकत को समझने की लिए कुछ ज्यादा करने की जरूरत नहीं है। स्वास्थ्य सेवाएं किस हाल में हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की कमी को पूरा करने के नाम पर प्रदेश स्तर पर 450 की भर्ती की गयी थी, लेकिन ज्वांइन मात्र 35 ने किया। इस बार हाल फिलहाल में आठ सौ की भर्ती की गयी है, इनमें से ज्वांइन कितने करेंगे इसको लेकर तस्वीर के साफ होने का इंतजार करना पड़ेगा। इतना तय है कि भले ही कितने ही ज्वांइन कर लें फिर भी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के डाक्टरों के अकाल से उबरने की उम्मीद कम ही नजर आती है।
ऐसे ढहा स्वास्थ्य सेवाओं का किला
ऐसा ही नहीं कि स्वास्थ्य सेवाएं हमेशा ही ऐसे चरमराई हुई थी, इसको ढहाने का काम बेतुके फरमानों ने किया है। बेतुके फरमानों ने कैसे स्वास्थ्य सेवाओं का किला ढहाने और प्रदेश की बात तो छोड़िए जनाव मेरठ जैसी जगह पर 17 हजार 3 सौ झोलाछाप के पनपने का काम किया है वह समझ लीजिए। मेरठ सरीखे हालात पूरे प्रदेश के हैं। दरअसल हुआ यह कि फरमान जारी किया गया कि कोई भी सरकारी डाक्टर निजी प्रैक्टिस नहीं करेगा। उसको प्रैक्टिस एलाउंस दिया जाएगा। सरकार के इस फरमान से सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि बड़ी संख्या में सरकारी डाक्टर नौकरी छोड़कर चले गए। कुछ ने अपना क्लीनिक खोल लिया तो कुछ मल्टी स्टार्रर नर्सिंगहोमों में नौकरी पा गए। अब आप पूछेंगे कि इससे झोलाछाप को पनपने का मौका कैसे दिया गया तो चलो यह भी समझा देते हैं। गांव देहात में रहने वाले सभी लोग जिला अस्पताल या मेडिकल तक नहीं पहुंच पाते, यहां तक पहुंचने के बजाए वो गांव में बैठे डाक्टर जिसे स्वास्थ्य विभाग झोलाछाप बताता है उनसे इलाज कराना बेहतर समझते हैं, क्योंकि वो झोलाछाप उनसे एक फोन काल की दूरी पर होता है। जहां तक महंगे नर्सिंगहोम की बात है जहां आसानी से डाक्टर उपलब्ध है वहां तक जाना लोअर मीडिल क्लास और गरीब की जेब से बाहर की बात है। यदि सरकारी डाक्टरों पर नॉन प्रैक्टिस वाला फरमान थोपने से पहले यदि सोचा समझा होता तो झोलाछाप ढूंढने से भी नहीं मिलते। करना बस इतना था कि सरकारी सेवा में आने वाले डाक्टरों को केवल निजी प्रैक्टिस की छूट दी जाती। सरकारी डयूटी को लेकर जरूर सख्ती की जाती। लेकिन सरकारी डयूटी के बाद जब वही डाक्टर प्राइवेट मरीज देखते और कम पैसों देखते तो फिर उस इलाके में जहां उनका क्लीनिक होता आसपास कोई भी झोलाछाप पनप नहीं पाता। उसकी वजह यह क्योंकि गरीबों को एक डिग्री धारक डाक्टर की स्वास्थ्य सेवाएं मिल रही थीं। इसके अलावा जो नॉन प्रैक्टिस एलाउंस के नाम पर एक भारी भरकम रकम खर्च की जा रही उस रकम से सीएचसी और पीएचसी पर अच्छी मशीनें, जांच के अन्य यंत्र व दवाएं आदि मुहैय्या करा दी जातीं। इससे ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में निखार आता औरा स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर लोग शहर की ओर नहीं भागते जैसा कि अब हो रहा है। कुछ इसी तरह के और दूसरे बेतुके फरमान थे जिन्होंने स्वास्थ्य सेवाओं को ढहाने का काम किया।
यह हुआ नुकसान
स्वास्थ्य सिस्टम चलाने वालों की इसी प्रकार की नासमझी का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि एमबीबीएस और एमडी की पढाई कर निकलने वाले सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को तिलांजलि देने लगे। नतीजन सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की कमी बाद में डाक्टरों के अकाल में बद गयी। इसका सबसे बड़ा नुकसान जो मेडिकल कालेज डाक्टरी की पढाई कराते हैं उन्हें हुआ। डाक्टरों की कमी के चलते फैकल्टी की कमी होने लगी। फैकल्टी की कमी हुई तो फिर इन मेडिकल कालेजों की जिनमें मेरठ का एलएलआरएम भी शामिल है, वहां एमबीबीएस व एमडी की सीटें घटती चली गयीं। नाम न छापने की शर्त पर साल 1991 में एलएलआरएम से एमबीबीएस करने वाले डाक्टर ने जानकारी दी कि उस वक्त एमबीबीएस की 135 सीटें थीं जो अब घटकर महज 92 रह गयी हैं। इसके इतर 2005 में सुभारति में 50 सीटें थीं जो 2023 में बढ़कर 2 सौ जा पहुंची हैं। उसकी वजह सुभारति जैसे मेडिकल में काबिल फैकल्टी का होना। काबिल फैकल्टी इसलिए मिलती है क्योंकि एलएलआरएम में फैकल्टी को जितनी सेलरी दी जाती है उससे तीन गुना सेलरी सुभारति सरीखे मेडिकल कालेज में फैकल्टी को मिल रही है। वहां पढाने का वक्त मुकर्रर है उसके बाद चाहे तो फैकल्टी प्राइवेट प्रैक्टिस कर सकते हैं। प्राइवेट मेडिकल में फैकल्टी को वो तमाम सहुलियत मुहैय्या करायी जा रही हैं जो सरकारी मेडिकल में कभी सोची नहीं जा सकतीं।
बेहद नाजुक है हालात
हालात की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एलएलआरएम मेडिकल में रेडियोलॉजिस्ट एक अरसे से नहीं है। मेडिकल चलाने वालों से कोई पूछे कि जब मास्टर जी नहीं है तो फिर पढाई कौन करा रहा है। एक और स्याह सच बेपदा कर देते हैं। यूपी की आबादी करीब 26 करोड है और सामान्य श्रेणी की यूपी रेडियोलॉजिस्ट की महज चार सीटें हैं।
इंसेट
18 साल से मवाना में फिजिशियन व सर्जन नहीं
मेरठ के मवाना की आबादी करीब 92 हजार है। स्वास्थ्य सेवाओं की यदि बात की जाए तो बीते 18 साल से वहां फिजिशियन नहीं है। स्वास्थ्य सेवाओं में फिशियन का होना पहली और अनिवार्य शर्त है, मेरठ में स्वस्थ्य विभाग के कर्ता धर्ता इस शर्त को बीते 18 साल से लटकाए हैं। पूरी तब हो जब भर्ती हुए नए डाक्टरों की खेप आए। सीएचसी के अलावा मवाना में बहसूमा, मीवा, लतीफपुर व एक अन्य पीएचसी हैं। मवाना में डाक्टरों की आठ पोस्ट की स्वीकृत हैं और एक अरसे से चार से काम चलाया जा रहा है। ऐसे में भला झोलाछाप नहीं पनपेंगे तो और क्या होगा। मवाना, सरधना और दौराला सरीखी सीएचसी में यदि एमआरआई, ईएनटी, आई व अन्य ऐसे ही रोगों की यदि पूर्ण सुविधा मिले तो इससे मेडिकल व जिला अस्पताल की भी भीड़ कम होगी और फिर लोग बजाए झोलाछाप के सरकारी सेवाओं को तवज्जो देंगे।