द्रोपदी नहीं घृतराष्ट्र का मौन भी , जैन तीर्थ नगरी के रूप में दुनिया भर में पहचान रखने वाले हस्तिनापुर की बर्बादी के लिए द्रोपदी के शाप से ज्यादा घृतराष्ट्र का माैन उत्तरदायी है। करीब पांच हजार साल पूर्व एक वैभवशाली राज्य हस्तिनापुर की बर्बादी का कारण दुर्योधन का अहंकार और महाराजा घृतराष्ट्र का मौन जिस तरह से आज भी जिम्मेदार ठहराया जाता है, कुछ वैसा ही सदर जैन समाज की एक शिक्षण संस्था को लेकर भी नजर आ रहा है। यहां भी समाज के घृतराष्ट्रों का मौन और दुर्योधन सरीखों का अहंकार समाज के गरीब बच्चों को शिक्षा जैसा वरदान देने के लिए बनायी गयी संस्था को बर्बाद करने पर उतारू है। सदियों बाद आज भी हस्तिनापुर के बर्बादी के लिए दुर्योधन के अहंकार व द्रोपदी के शाप से ज्यादा घृतराष्ट्र के मौन को उत्तरदायी ठहराया जाता है, कुछ वैसा ही आने वाली पीढ़ियां समाज की शिक्षण संस्थान की बर्बादी के लिए जो मौन हैं उनको जिम्मेदार ठहराएंगी। चुप रहने वालों से सवाल भी पूछें जाएंगे कि क्या संस्था के सचिव का इतना बड़ा कसूर था कि उसको घर परिवार से दूर कर सलाखों के पीछे डाल दिया गया। जो कुछ तब था, उससे ज्यादा खराब हालात तो आज नजर आते हैं। यदि अब भी समाज के लोग अहंकारी दुर्योधन के आगे घृतराष्ट्र के मौन की तर्ज पर चुप रहे तो संस्था की तो बर्बादी होगी ही, लेकिन इस चुप्पी के लिए आने वाली पीढ़ियां भी माफ नहीं करेगा। देश भर के जैन समाज में जिस सदर का नाम सम्मान से लिया जाता था, यहां के आए दिन के घटनाक्रमों को देखकर देश के अन्य राज्यों के जैन समाज के लोगों ने मुंह मोड़ लिया है। वैभवशाली हस्तिनापुर के अहंकारी दुर्योधन की वजह से ही महाभारत हुई थी और महाभारत खत्म होते-होते हस्तिनापुर का वैभव भी नष्ट हाे गया। तब महाराजा घृतराष्ट्र ने अहंकारी दुर्योधन पर अंकुश लगाया होता तो हस्तिनापुर का वैभव यूं न नष्ट होता। अभी भी वक्त है यदि अहंकारी दुर्योधन पर अंकुश नहीं लगा और हस्तिनापुर की तर्ज पर शिक्षण संस्था का वैभव नष्ट होगा तो उसके लिए समाज के जो बड़े बुजुर्ग आज मौन हैं वही जिम्मेदार कलाएंगे।