पहले गिले शिकवे फिर चुनाव, भगवा खेमे के चुनावी रणनीतिकारों की पेशानी की लकीरें अभी खत्म होती नजर नहीं आ रही हैं. हालत यह है कि बजाए पूरी ताकत से चुनाव में साइकिल पिक्चर करने और हाथी को घेरने के बजाए गिले शिकवें सुनने और सुनाने और रूठों को मनाने का दौर जारी है. महापौर समेत नगर निगम मेरठ के ज्यादातर वार्ड में प्रत्याशियों को लेकर फंसी फांस अभी निकलती नजर नहीं आ रही है. इस फांस की टीस रह-रहकर उठ रही है. यह हालात से केवल जनपद मेरठ नगर निगम में ही नहीं वल्कि वेस्ट यूपी खातसौर से मेरठ मंडल के तमाम जनपदों में भगवा खेमे को जुझना पड़ा रहा है. गाजियाबाद में प्रदेश भाजपाध्यक्ष भूपेन्द्र सिंह का दौरा उसके बाद मेरठ में पंकज सिंह का कार्यकर्ताओं से रूबरू होना गिले शिकवें दूर करने के नजरिये से देखा जा रहा है. भूपेन्द्र सिंह व पंकज सिंह की कोशिशें कितनी परवान चढ़ी इसका आंकलन तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही किया जा सकता है. लेकिन इतना तय है कि स्थानीय स्तर पर चुनावी महासमर में उतरे भगवा खेमे के महायोद्धाओं की पेशानी पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही हैं। ओबीसी को लेकर सबसे ज्यादा चिंता नजर आती है. जाट-गुर्जरों के फिसल जाने के खौफ से भी नींद उड़ी हुई है, लेकिन इन सब के बीच सबसे ज्यादा परेशान वो किए हैं, जिन्हें शिकायत हैं कि दशकों से सेवा के बाद भी जब कुछ मिलने की बारी आयी तो उन्हें बिसरा दिया गया, सेवा को जो सिला मिलना चाहिए था, वो नहीं मिला, जो परिश्रम कर रहे थे उन पर परिक्रमा करने वाले भारी पड़ गए, जिसका नतीजा सामने हैं, पूरी ताकत से बजाए चुनावी महासमर में विरोधियों को ललकारने के अभी ज्यादा वक्त गिले शिकवें दूर करने में जाया जा रहा है. हालात कीतनी नाजुक है इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि महापौर के बेहद करीबी भी अब मुंह खोलने को मजबूर हैं. उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि चुनाव लड़ाया जा रहा है या फिर चुनाव लड़ाने की रस्म अदायगी की जा रही है. माना जा रहा है कि यदि हालात पर आने वाले चंद घंटों में काबू नहीं पाया जा सका तो जिनको बेहद करीबी बताया जा रहा है, वो संगठन के समानांतर चुनावी बागडौर अपने हाथ में न ले लें. जानकारों का कहन है कि यदि ऐसा होता है तो इसके साइड इफैक्ट ज्यादा खराब हो सकते हैं. माना जा रहा है कि इसी के चलते अब ओसीबी में शुमार किए जाने वाले भगवा खेमे के पुराने रणबाकुंरों को अलग-अलग बैठकें कर उनके शिकवे शिकायत दूर करने में लगा है. भगवा खेमा यह भी मान रहा है कि यदि बगैर वक्त जाया किए हालात पर काबू नहीं पाया गया तो जाट-गुर्जरों के छितरा जाने व बाकि ओबीसी के भी बंट जाने तथा मुस्लिमों के धुव्रीकरण से बसपा को फायदा पहुंच सकता है और यह भी आशंका है कि एक बार फिर मेरठ नगर निगम में हाथी की दहाड़ सुनाई दे. हालांकि मेरठ महापौर के चुनाव की नब्ज को करीने से टटोलने वालों का मानना है कि जहां तक मुस्लिमलों का सवाल है तो यूपी समेत देश भर में पिछले कुछ के दौरान हुई घटनाओं के चलते पूरा प्रयास है कि वोटों को बंटवारा न हो. आम मुस्लिम की यदि बात की जाए तो उसको बजाए सपा-रालोद व बसपा या कांग्रेस के प्रत्याशी में से किसी एक को चुनने के उसकी पहली दिलचस्पी इस बात में है कि कौन भगवा पार्टी के प्रत्याशी से मजबूती से लड़ सकता है. इसके अलावा भगवा खेमे की बड़ी परेशानी आम आदमी पार्टी की महापौर प्रत्याशी का चुनाव भी है. चुनावी हालात की बात की जाए तो आम आदमी पार्टी की प्रत्याशी सबसे ज्यादा नुकसान ही भगवा पार्टी को पहुंचाएंगी. चुनाव परिणाम को लेकर किसी नतीजे पर पहुंचना तो जल्दबाजी होगी, लेकिन इतना तय है कि मेरठ की यदि बात की जाए तो कई बड़े नाम वालों की इज्जत दांव पर लगी है.