चुनाव: जो खुद बे-सहारा-उनका सहारा, यूपी स्थानीय निकाय चुनाव में तमाम प्रमुख दलों के चुनावी महासमर में खुद को असहाय समझ रहे तमाम चक्रव्यूह से निकलने के लिए ऐसी बैसाखियों का प्रयोग करने से भी गुरेज नहीं कर रहे, जो बैसाखियां खुद अपने के लिए बैसाखी तलाश कर रही हैं. राजनीतिक जमीन पर अरसे पहले हाशिए पर धकेल दिए गए नेता जो खुद के लिए सहारे की बाट जो रहे हैं, ऐसे नेताओं का सहारा लेकर चुनावी जंग जीतने से भी गुरेज नहीं बरती जा रही है. किसी भी राजनीतिक दल के प्रत्याशी खासतौर से जिनकी प्रतिष्ठा इस चुनाव में दांव पर लगी है, बे-सहारों का सहारा लेने में उन्हें कोई गुरेज नहीं. मेरठ नगर निगम चुनाव खासतौर से महापौर चुनाव की यदि बात की जाए जिन्हें ऐसा लगा रहा है कि चुनाव फंसा हुआ है, आमतौर पर वो ऐसे ही ठुकरा हुओं को पाले में लाकर जात बिरादरी या फिर राजनीतिक तौर पर पब्लिक को संदेश देने का प्रयास कर रहे हैं. मेठ नगर निगम के चुनाव में इन दिनों ऐसे नजारे आम हैंं. पार्टी में ऐसी ज्वाइनिंग कराने से प्रत्याशी को कितना फायदा होगा, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना जरूर है कि जो पुराने व वफादार है और चुनाव में भी जी जान से लगे हैं, उनके दिल में जरूर कसक है कि उन सरीखों पर भरोसा न कर संगठन उनमें सहारा तलाश रहा है जो अरसे से खुद राजनीतिक सहारे की बाट जा रहे हैं. मजबूत राजनीतिक सहारे की तलाश कर रहे हैं. ऐसे करीब दर्जन भर नाम हैं जो अरसे से राजनीतिक तौर पर बेरोजगार चल रहे थे, लेकिन पार्टी ज्वाइनिंग कराने के नाम चुनावी मौसम में जरूर कुछ वक्त के लिए इनके लिए रोजगार का जुगाड़ गया है. इसका फायदा या नुकसान कितना होगा, यह पता चल सकेगा चुनाव परिणाम आने के बाद. ऐसा नहीं कि किसी एक दल में ऐसा हो रहा है. चुनावी मौसम में इस प्रकार के राजनीतिक नजारे आम है. इस प्रकार के नजारे यूं ही नहीं नजर आतें. बड़े राजनीतिक दलों में इस प्रकार के नजारों के लिए एक टीम अलग से काम करती है. किस ज्वाइन कराना है और कौन ज्वाइन कराएगा इसकी पहले कानों कान किसी को भनक तक नहीं लगने दी जाती. दरअसल ऐसा सावधानी इसलिए भी बरतनी पड़ती है ताकि खुद के घर से ही ज्वाइनिंग से पहले विरोध के स्वर न सुनाई देने पड़े. ऐसा नहीं कि जिन्हें ज्वाइनिंग करायी जा रही हो वो सभी राजनीतिक तौर बेरोजगार होते हैं. ज्वाइन करने वाले कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी कारोबारी मजबूरियां होती हैं. कारोबार ठीकठाक चलता रहे, कारोबार में किसी प्रकार की कोई परेशानी न हो, इसके लिए भी रसूखदार राजनीति हाथ मिलाने में गुजरेज नहीं बरता जाता है. मेरठ के परिपेक्ष्य में तो ऐसे नेताओं जो राजनीतिक मजबूरी के लिए पाले बदले बैठे हैं उनकी संख्या करीब पचास है. ऐसा नहीं कि इससे कुछ फायदा नहीं हुआ है, फायदा भी हुआ और राजनीतिक रसूख के बाद जो कारोबारी अड़चने आ रही थीं उनसे भी निजात मिल गई. राजनीतिक में ये सब अब सामान्य सा हो गया है.