महंगा न्याय या न्यायिक लूट, सत्तर साल से है हुकूमरानों की नजरें इनायत का इंतजार, वेस्ट की पंद्रह करोड़ पब्लिक को चाहिए वैंच
नई दिल्ली/इलाहाबाद/मेरठ/आगरा। साल 1955में वेस्ट यूपी में हाईकोर्ट बैंच की पहली बार उठायी गयी मांग को सत्तर साल बाद भी पूरे होने का इंतजार है। यह मांग किसी अन्य ने नहीं बल्कि यूपी के तत्कालीन सीएम संपूर्णानंद ने उठायी थी। इस मांग को सैद्धांतिक रूप से पूर्व पीएम श्रीमती इंदिरा गांधी भी स्वीकार कर चुकी थीं, लेकिन दुखद यह है कि इसके बाद भी वेस्ट यूपी वालों को इंसाफ के लिए आठ सौ किलोमीटर का सफर करना होता है। वेस्ट यूपी के 22 जिलों की 15 करोड़ जनता को एक अदत बैंच नहीं मिल पा रही है। इसके इतर महाराष्ट्र के महज छह जिलों पर हाईकोर्ट बैंच दे दी जाती है। केंद्र और राज्य दोनों बीजेपी के पास, फिर भी बैंच के नाम पर सांंप सत्ताधारियों को सांप सूंघ जाता है। इसकी बड़ी वजह वेस्ट यूपी के नेताओं और यहां के आंदोलनकारी वकीलों में वो गुर्दा नहीं जो पूर्वी यूपी के वकीलों के प्रेशर से निपट सकें। न्याय के लिए हाईकोर्ट बैंच तक परिक्रमा करने वालों का कहना है कि लाहौर जाना उन्हें करीब पड़ता है जबकि इलाहाबाद हाईकोर्ट उन्हें दूर पड़ता है।
अब तक यह हुआ
पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने 1986 में संसद में मेरठ बेंच की मांग की, तब सूबे के अब के सीएम योगी आदित्यनाथ ने समर्थन दिया, लेकिन अटल जी जब पीएम बने और योगी सीएम तभी भी बैंच नहीं मिल सकी। पूर्व सांसद सत्यपाल सिंह ने 2016 पुरजोर तरीके से यह मांग उठायी थी, लेकिन बाद में बताया गया कि फाइल ही गुम होगयी। इसके अलावा दर्जनों बार आंदोलन हो चुके हैं। वेस्ट यूपी को बंद किया जा चुका है, लेकिन इन तमाम कवायदों के अभी रंग लाने का इंतजार है। जस्टिस जसवंत सिंह आयोग साल 1981 में आगरा बेंच की सिफारिश की, लेकिन राज्य सरकार की सहमति और चीफ जस्टिस की मंजूरी का इंतजार अभी भी जारी है। सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में कहा, “मांग जायज है,” लेकिन बोला थाकि फाइल फैसला “केंद्र का होगा, लेकिन केंद्र में मजबूत पैरवी ना होने के चलते मामला आज तक डंप है।
आधे से ज्यादा मामले वेस्ट यूपी से
इलाहाबाद हाईकोर्ट में जितने भी प्रकरण चल रहे हैं उनमें आधे से ज्यादा वेस्ट यूपी के होते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के वकीलों की वेस्ट यूपी मं हाईकोर्ट बैंच की मांग के विरोध की बात को बस इसी से समझा जा सकता है। इलाहाबाद की दूरी करीब सात सौ से साढे आठ सौ किलोमीटर पड़ती है। वहीं दूसरी ओर यदि लखनऊ बैंच की बात करें तो वह महज पंद्रह जिलों को ही कवर कर पाती है। एडवोकेट संजय शर्मा (मेरठ बार एसोसिएशन अध्यक्ष) कहते हैं, “एक साधारण सुनवाई के लिए 6 महीने इंतजार, और यात्रा का खर्चा—यह न्याय नहीं, ‘न्यायिक लूट’ है।” गरीब वकील और वादी तो बसों में ठूँसकर जाते हैं, जहाँ थकान से केस हारने का डर हमेशा साया बनाए रहता है।
वेस्ट के पैरोकारों में नहीं दम
हाईकोर्ट बैंच के लिए जो खुद को पैरोकार बताते हैं तमाम कवायदों के बाद भी यदि बैंच को लेकर सुनवाई नहीं तो साफ है कि वेस्ट यूपी के पैरोकारों की बात में वो दम नहीं जो पूर्वी यूपी के वकीलों में है। भाजपा से जुड़े वकील भी कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं, जबकि केंद्र और प्रदेश दोनों में उनकी पार्टी की सरकार है। उसके बाद भी वो लाचार नजर आते हैं। यूं कहने को पूर्व में राज्यसभा सांसद लक्ष्मीकांत वाजपेयी, सांसद अरुण गोविल, केंद्रीय मंत्री जयंत चौधरी सरीखे आवाज उठा चुके हैं, लेकिन लगता है कि इनकी आवाज में वो दम अभी नहीं जिससे बैंच मिल सके।
चुनावी मुद्दा भी नहीं बना सके
हाईकोर्ट बैंच को वेस्ट यूपी वाले एक चुनावी मुद्दा तक नहीं बना सके। इससे साबित होता है कि कितनी मजबूती से बैंच की मांग की जा रही है। जब भी चुनाव आते हैं केवल सभाओं में बैंच का जिक्र भर होता है। उससे आगे कुछ नहीं हो पाया। बेगमपुल व्यापारसंघ के पूर्व अध्यक्ष पुनीत शर्मा का कहना है कि जब तक राजनीति से ऊपर उठकर वेस्ट के नेता एक मंच पर नहीं आएंगे तब तक बैंच की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है।
बैंच के शेर हो जाते हैं ढ़ेर
हाईकोर्ट बैंच के लिए आंदोलन का दम भरने वाले शेर ज्यादा देर तक नहीं टिक पाते और ढ़ेर हो जाते हैं। वहीं दूसरी ओर इसी साल अगस्त माह में महाराष्ट्र के कोलहापुर में राज्य की छटी बैंच ने काम शुरू कर दिया है। महज छह जिलों पर यह बेंच दी गयी है। वेस्ट यूपी में वकीलों के धरने प्रदर्शन, रेल रोकने नेताओं के घेराव के बाद भी बैंच नहीं मिल पा रही है। सीनियर एडवोकेट केके पहवा, चौधरी यशपाल सिंह, युवा अधिवक्ता शक्ति सिंह जैसे दिग्गज चेताते हैं, “यह अनुच्छेद 14 (समानता) का उल्लंघन है।”