ये जिंदगी ना मिलेगी दोबारा

kabir Sharma
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बढ़ती आत्महत्या को लेकर डा. नौसरना ने दी चेतावनी, व्यक्तिगत नहीं बल्कि ग्लोबल प्रोबलम, किसी पर इतना प्रेशर ना डालो की वो जान ही दे दे

नई दिल्ली। किसी को इतना ना डराओ की उसको जिंदगी और मौत का फर्क ही ना समझ में आए। किसी को इतना ना प्रेशर डालों की उसको जिंदगी का बोझ भारी लगाने लगे और वो मौत को पहली पंसद बना ले.. ये फिल्मी डॉयलॉग नहीं बल्कि वर्ल्ड क्लास साइक्लिस्ट व साइक्लोमैड फ़िट इंडिया के संस्थापक प्रोफेसर डाक्टर अनिल नौसरान की गंभीर चेतावनी है। यह चेतावनी केवल इंडिया के लिए नहीं बल्कि पूरे विश्व खातसौर से यूरोप के उन देशों के लिए हैं जहां पैसा तो काफी है लेकिन जिंदगी में सकून नहीं है।

बच्चे क्यों लगा रहे मौत को गले

डा. अनिल नौसरान का कहना है कि बच्चे जो भले ही कितने ही बड़े हो जाएं लेकिन माता पिता के लिए बच्चे ही रहते हैं वो मौत को क्या गले लगा रहे हैं। आज के समय में आत्महत्या की बढ़ती घटनाएँ समाज के लिए एक गंभीर चिन्ता का विषय बनती जा रही हैं। यह केवल एक व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक, पारिवारिक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा गहरा मुद्दा है। हर दिन कोई न कोई युवा, कोई छात्र, कोई कर्मचारी, कोई प्रेमी–युगल या कोई परिवार से दबाव झेल रहा व्यक्ति इस चरम कदम की ओर बढ़ जाता है। लेकिन क्या यह समाधान है? बिल्कुल नहीं। आत्महत्या एक क्षणिक आवेग में लिया गया निर्णय होता है, जिसका असर जीवनभर दूसरों पर रहता है।

क्योंकि जिदंगी ना मिलेगी दोबा

युवाओं के बीच प्रेम संबंधों में अस्थिरता बढ़ रही है। छोटी–छोटी बातों में टूट जाना, अपेक्षाएँ पूरी न होना, विवाद या अस्वीकार। ये सभी परिस्थितियाँ भावनात्मक तनाव को बढ़ाती हैं। प्रेम जीवन महत्वपूर्ण है, लेकिन जीवन उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इसके अलावा कुछ स्थानों पर वरिष्ठ अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारियों पर क्षमता से अधिक काम डालते हैं, समय पर अवकाश नहीं देते और लगातार दबाव बनाते रहते हैं। यह व्यवहार मानसिक थकान, अवसाद और निराशा का कारण बनता है। कार्यस्थल ऐसा होना चाहिए जहाँ व्यक्ति सम्मान, सहयोग और संतुलन के साथ काम कर सके। शादी में असमानताएं बहुत घातक होती हैं। डा. नौसरान का कहना है कि कुछ स्थानों पर वरिष्ठ अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारियों पर क्षमता से अधिक काम डालते हैं, समय पर अवकाश नहीं देते और लगातार दबाव बनाते रहते हैं। सेलरी तक नहीं देते। यह व्यवहार मानसिक थकान, अवसाद और निराशा का कारण बनता है। कार्यस्थल ऐसा होना चाहिए जहाँ व्यक्ति सम्मान, सहयोग और संतुलन के साथ काम कर सके।

ये करें माता पिता

डा. अनिल नौसरान बच्चों को लेकर माता पिता को कुछ टिप्स देते हैं। उनका कहना है कि बच्चे केवल शारीरिक देखभाल से नहीं, बल्कि भावनात्मक सुरक्षा से भी बड़े होते हैं। माता–पिता का यह दायित्व है कि वे बच्चों की भावनाओं को समझें। यदि बच्चा गुमसुम है, उसका व्यवहार असामान्य है, वह अकेला रहने लगा है, बात नहीं करना चाहता यह सब एक चेतावनी है। बच्चों से बातचीत करें, उन्हें आश्वस्त करें “हम तुम्हारे साथ हैं — अच्छे समय में भी और बुरे समय में भी।” मन का घाव सबसे गहरा होता है, और इसका इलाज केवल प्यार, सहानुभूति और संवाद है। याद रखें कि समाज कभी साथ नहीं देता, लेकिन परिवार हमेशा देता है। इसलिए “लोग क्या कहेंगे” से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि आपके अपने बच्चे क्या महसूस कर रहे हैं। उन्हें यह महसूस कराएँ कि जीवन अनमोल है, और समस्याएं स्थायी नहीं-परिवार का साथ स्थायी है।

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जान देना जान लेने के समान है

जो जान देते हैं और इससे पहले सोचते हैं कि चलाे पीछा छूट जाएगा उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि वो यूं जान देकर अपने चाहने वालों खासतौर से पत्नी और माता पिता को जीते जी मार डालने का काम कर रहे हैं। जीवन ईश्वर का अनमोल उपहार है।
इसको समाप्त करना किसी भी समस्या का उत्तर नहीं है, क्योंकि कोई भी परेशानी इतनी बड़ी नहीं होती कि जीवन से अधिक मूल्यवान हो जाए। हमें मिलकर ऐसा समाज बनाना है जहाँ किसी को भी यह महसूस न हो कि वह अकेला है। जहाँ प्रेम, सम्मान, संवाद और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता मिले।

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