कोर्ट से सवाल रेपिस्टों को राहत क्यों

kabir Sharma
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राम रहीम, आशाराम, कुलदीप सेंगर सरीखों को राहत, शरजिल के मामले में सुनवाई तक नहीं, सोमन वांगचुक का क्या कसूर

नई दिल्ली। क्या कोर्ट कानून से ऊपर है। देश का एक बड़ा तबका यह सवाल पूछ रहा है। राम रहीम सरीखे रेप के आरोपियों को थोक में राहत और शरजिल जैसे एक्टिविस्ट के मामले में सुनवाई तक की कोर्ट को फुर्सत नहीं। सोमन वांगचुक का क्या कसूर है। आमतौर पर कई मामलों को कोर्ट खुद संज्ञान लेने का दावा करती है तो फिर सोमन वांगचुग के मामले में संज्ञान क्यों नहीं। बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में दोषी ठहराए गए व्यक्तियों को जमानत या पैरोल मिल रही है, जबकि दूसरी तरफ पर्यावरण और सामाजिक मुद्दों पर शांतिपूर्ण आंदोलन करने वाले एक्टिविस्ट्स की सुनवाई में देरी हो रही है या उन्हें राहत नहीं मिल रही। यह मुद्दा हाल के दिनों में कुलदीप सिंह सेंगर के मामले से फिर सुर्खियों में आया है। न्यायिक फैसलों की दोहरी प्रकृति पर एक बार फिर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। एक तरफ बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में दोषी ठहराए गए व्यक्तियों को जमानत या पैरोल मिल रही है, जबकि दूसरी तरफ पर्यावरण और सामाजिक मुद्दों पर शांतिपूर्ण आंदोलन करने वाले एक्टिविस्ट्स की सुनवाई में देरी हो रही है या उन्हें राहत नहीं मिल रही।

इन पर क्यों मेहरबान है कोर्ट

दो शिष्याओं से रेप का आरोपी गुरमीत राम रहीम बार-बार पेराल पर बाहर आ जाता है। उसमें ऐसी क्या खास बात है जो कोर्ट की उस पर मेहरबानियां बरस रही हैं। गंभीर अपराधों का आरोपी दिल्ली हाईकोर्ट ने 23 दिसंबर को पूर्व भाजपा विधायक सेंगर की उम्रकैद की सजा निलंबित कर अपील लंबित रहने तक सशर्त जमानत दे दी। कोर्ट ने कहा कि सेंगर 7 साल से अधिक जेल में रह चुके हैं। हालांकि, पीड़िता के पिता की हिरासत में मौत के अलग मामले में 10 साल की सजा के कारण वे अभी जेल में ही हैं। पीड़िता ने इसे “परिवार के लिए मौत” बताया और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की घोषणा की। सीबीआई भी इस फैसले के खिलाफ अपील करेगी। कोर्ट ही नहीं सीबीआई की लचर पैरवी पर भी सवाल हैं। विभिन्न बलात्कार मामलों में उम्रकैद की सजा काट रहे आसाराम को 2025 में कई बार मेडिकल ग्राउंड्स पर अंतरिम जमानत मिली, जिसमें राजस्थान और गुजरात हाईकोर्ट ने 6 महीने तक की राहत दी। ये तीन नाम तो केवल वानगी भर हैं। ऐसे मामलों की लंबी फेरिस्त है। इनको राहत देने वाले यदि आत्म मंथन करेंगे तो यह सबसे बड़ा उपकार न्याय प्रणाली पर होगा।

इनका क्या कसूर

जो अपने लिए नहीं देश के लिए हमेशा सोचते हैं शायद यही उनका कसूर रहा होगा। लद्दाख में राज्य का दर्जा और संवैधानिक सुरक्षा की मांग पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन के लिए सितंबर 2025 में एनएसए के तहत हिरासत में लिए गए। सुप्रीम कोर्ट में उनकी पत्नी की याचिका पर सुनवाई बार-बार टल रही है—दिसंबर में कई तारीखें आगे बढ़ीं, अब जनवरी 2026 में। दिल्ली हाईकोर्ट ने 23 दिसंबर को पूर्व भाजपा विधायक सेंगर की उम्रकैद की सजा निलंबित कर अपील लंबित रहने तक सशर्त जमानत दे दी। कोर्ट ने कहा कि सेंगर 7 साल से अधिक जेल में रह चुके हैं। हालांकि, पीड़िता के पिता की हिरासत में मौत के अलग मामले में 10 साल की सजा के कारण वे अभी जेल में ही हैं। पीड़िता ने इसे “परिवार के लिए मौत” बताया और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की घोषणा की। सीबीआई भी इस फैसले के खिलाफ अपील करेगी। 2020 दिल्ली दंगों की कथित साजिश में यूएपीए के तहत आरोपी। सुप्रीम कोर्ट में जमानत याचिका पर सुनवाई 2025 में कई बार टली, दिसंबर में भी आगे बढ़ी। कई साल से जेल में हैं। जब आप ही नहीं सुनवाई करेंगे तो फिर कौनसा दूसरा दर है आप ही बता दीजिए।

जो हो रहा है वो सोसाइटी को स्वीकार्य नहीं बाकि आपकी मर्जी

रेपिस्ट को राहत के नाम पर कोर्ट जो कर रही है वो सभ्य समाज को स्वीकार्य नहीं है, बाकि आपकी मर्जी है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सेंगर की जमानत को “शर्मनाक” बताया और कहा, “बलात्कारियों को जमानत और पीड़िताओं के साथ अपराधियों जैसा व्यवहार—यह कैसा न्याय है?” उन्होंने इसे “मृत समाज” बनने की ओर इशारा बताया। महिलाओं के अधिकार कार्यकर्ता योगिता भयाना और अन्य ने न्याय व्यवस्था पर पक्षपात का आरोप लगाया। पीड़ित परिवारों का कहना है कि प्रभावशाली अपराधी राहत पा रहे हैं, जबकि असहमति जताने वाले दबाए जा रहे हैं।

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कानूनविद भी सहमत नहीं

कानूनी विशेषज्ञ कहते हैं कि अपील के दौरान सजा निलंबन संभव है, लेकिन गंभीर मामलों में पीड़ितों की सुरक्षा और सार्वजनिक भावना को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। यूएपीए जैसे सख्त कानूनों में जमानत मुश्किल होती है, जबकि सामान्य मामलों में लंबी हिरासत के आधार पर राहत मिल जाती है।यह मुद्दा महिलाओं की सुरक्षा, असहमति के अधिकार और न्याय की निष्पक्षता पर गहरे सवाल खड़े करता है। क्या प्रभाव और राजनीतिक कनेक्शन न्याय को प्रभावित कर रहे हैं? समाज और न्यायपालिका को इस पर गंभीर चिंतन करना होगा।

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