वाजपेयी हैं तो फिर संभव है

वाजपेयी हैं तो फिर संभव है
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वाजपेयी हैं तो फिर संभव है,  दस मई 1857 का दिन जब अंग्रेजी हुकूमत के ताबूत में हिन्दुस्तानियों ने पहली कील ठोकी थी और जिसकी शुरूआत मेरठियों ने की थी. तब ना कोई हिन्दू था ना मुसलमान, ना सिख था ना ईसाई. था केवल अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने का जज्बा और उसके नायब बने मतादीन. दिन बुधवार तारीख दस मई साल 2023 मौका था शहीदों को याद करने का. भैंसाली स्थित शहीद स्मारक पर शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए तमाम दलों के लोग जमा हुए, लेकिन एकता में अनेकता का संदेश देने का काम किया राज्यसभा सांसद डा. लक्ष्मीकांत वाजेपीय ने. रस्म अदायगी नहीं बल्कि सीधा और सपाट संदेश की हम सब एक हैं. यह संदेश तो कोई और भी दे सकता है. इससे भी बढ़ वो काम जिसकी उम्मीद केवल डा. लक्ष्मीकांत वाजपेयी से ही की जा सकती है, वो यह कि शहीदों को श्रद्धासुमन के वक्त 10 मई 1857 की क्रांति के पुरोधा शहीद मातादीन को पूरी शिद्दत से याद रखना. दरअसल हुआ यह कि डा. वाजपेयी जब श्रद्धांजलि देने पहुंचे तो उन्होंने पहला काम क्रांतिकारियों के अगुवा शहीद मातादीन का चित्र निकाला और स्थापित किया. जब सवाल पूछा कि यह सब क्या तो सीधा और सपाट उत्तर जो जिसके लिए डा. वाजपेयी मेरठियों की फर्स्ट च्वाइस माने जाते हैं. उन्होंने कहा कि शहीद मातादीन के बगैर यह कार्यक्रम अधूरा है. शहीद मातादीन ही तो 10 मई 1857 की क्रांति के शलाघा पुरूष हैं. इसलिए इस मौके पर उनका चित्र के बगैर कोई भी आयोजन बेमाने होगा. एक ओर संदेंश इस मौके पर डा. वाजपेयी देते नजर आए और था सर्वधर्म सद्भाव का. जब डा. वाजपेयी शहीद स्मारक पहुंचे तो उनके साथ शहरकाजी जैनुर साजद्दीन और सरजीत कपूर भी शहीद स्मारक पर शहीदों को नमन करते नजर आए. प्रथम स्वतंत्रा संग्राम का गवाह मेरठ और मौका दस मई के शहीदों को याद करने का, शहीद स्मारक पर हिन्दु-मुस्लिम-सिख के प्रतिक स्वरूप डा. लक्ष्मीकांत वाजपेयी-जैनुर राशदीन-सरबजीत कपूर, इससे शानदार कोई दूसरी तस्वीर हो ही नहीं सकती थी. यह एक सुखद अहसास था, भले ही यह अनायास था, लेकिन पूर्व में भी जिन कार्यक्रमों में डा. लक्ष्मीकांत वापजेयी रहे हैं, वहां ऐसे नजारे आम रहे हैं.

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